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महंगाई की मार*

 *महंगाई की मार*



मार महंगाई से विकल हो रहा,

      और पस्त हुआ  जमाना।

रमलू जैसे लूटा जा रहा,

       धन्ना  का बढ़ा खजाना।।


दाल तेल में मेल नहीं अब,

         रिश्ता हुआ पुराना,

मां की थाली फीकी पड़ रही।

     सोच में है जमाना।।


नई रेट दर तय करती अब,

        सपनों  का हरनामा।

जीवन को झकझोर सा रहा,

        बढ़ता हुआ पैमाना।।


 कहीं किसी से स्नेह नहीं अब,

          मचा हुआ हंगामा।

रमलू जैसा लूटा जा रहा,

      धन्ना का बढ़ा खजाना।।


  खुली  छूट लूटा लूटी की,

            कब तक बांह पसारेगी।

हर घर - आंगन की खुशियों को,

      पल - पल निगलती जाएगी  ।


नशा पान और रिश्वत खोरी,

          बढ़ रही काला बाजारी।

हर दांव पे दम तोड़ रही।

        सहमी है जिंदगी न्यारी।।



कोई नहीं किसी का लगता,

       रिश्ता है  बेमानी।

तुच्छ स्वार्थी इरादे और,

        कुछ अपयश है कहानी।।


लेकर शपथ तुम देश प्रेम का,

          अब छोड़ो भी नादानी ।

खिला हुआ चेहरा हो सबका,

            लिखो तुम नई कहानी।।


भ्रष्टाचार का अंत लिखो तुम,

         लिखो तुम जन खुशियाली।

कोई सोए भूखा न अबसे,

         हर रात में हो दिवाली।।


बाजारू अलगावो की जड़ता,

        को है तुम्हें मिटानी।

समता मूलक सामान मूल्य का,

     भाव है तुम्हें दिलानी।।



रहे खजाना भरा हुआ अब ,

       न रहे  कहीं गरीबी।

महंगाई का हरण करो,

       चमके सबकी नसीबी।।



महंगाई की मार से अब,

     तोड़े न कोई दम।

रमलू और धन्ना में भी हो,

       प्यार और हमदम।।।


रमलू और धन्ना में भी हो .....



        *प्रेषक*

वेद प्रकाश दिवाकर ( शिक्षक )


सक्ती ,जांजगीर - चांपा ,( छ.ग.)

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